बीमारी कहूं, कि बहार कहूं?
पीड़ा कहूं, कि त्यौहार कहूं?
संतुलन कहूं, कि संहार कहूं?
कहो तुझे क्या कहूं?
मानव जो उद्दंड था!
द्वेष का प्रचंड था!
सामर्थ्य का घमंड था!
प्रकृति को करता खंड-खंड था!
नदियां सारी त्रस्त थीं!
सड़कें सारी व्यस्त थी!
जंगलों में आग थी!
हवाओं में राख थी!
कोलाहल का स्वर था!
खतरे में जीवों का घर था!
फिर अचानक डर आया!
मृत्यु का खौफ लाया!
मानवों को ऐसा डराया!
देख विज्ञान भी घबराया!
लोग यूं मरने लगे!
खुद को घरों में भरने लगे!
इच्छाओं को सीमित करने लगे!
प्रकृति से डरने लगे..!
अब लोग सारे बंद है!
नदिया स्वच्छंद है!
हवाओं में सुगंध है!
वनों में आनंद है!
जीव सारे मस्त हैं!
वातावरण भी स्वस्थ है!
पक्षी स्वरों में चह-चहा रहे!
तितलियां इतरा रहीं!
अब तुम ही कहो, तुझे क्या कहूं!
बीमारी कहूं, कि बहार कहूं?
पीड़ा कहूं, कि त्यौहार कहूं?
संतुलन कहूं, कि संहार कहूं?
कहो! मैं तुझे क्या कहूं?