मित्रता का फ़र्ज
सुखिया और अजमत दोनों एक दूसरे के दुख से दुखी थे। बड़ी गाढ़ी मित्रता थी दोनों में। दीया और बाती की तरह थी उनकी दोस्ती। आसपास के चार गावों तक चर्चा थी उनकी मित्रता की। अजमत की तीनों बेटियां ब्याह कर ससुराल चली गई थी। केवल पति-पत्नी रह गए थे घर में। सुखिया को लगता कि अब तो कोई पानी के लिए भी पूछने वाला नहीं रहा अजमत को। अकेले दम पर वह भला क्या उपजाएगा और क्या खाएगा! सुखिया के तीनों बेटे भी शादी-शुदा थे।
घर में पोते-पोतियों के साथ खा और खेल रहा था वह। पर अजमत सोचना कि अब तो सुखिया के घर खाने वाले बढ़ गए हैं। जमीन तो उतनी ही है। कैसे गुजारा होगा भला? पर दोनों एक-दूसरे का मिजाज जानते थे। सीधे-सीधे कोई एक-दूसरे की मदद स्वीकारने को तैयार न था। धान कटनी का वक्त आ गया था।
हमेशा की तरह इस बार भी दोनों के खलिहान एक-दूसरे से सटे थे। मित्रता का फर्ज निभाने का अच्छा अवसर देखा दोनों ने। शाम के झुटपुटे में अजमत अपने खलिहान से धान का बोझ उठाता और सुखिया के खलिहान में रख आता था।
उसे पता नहीं था कि सुखिया भी यही करता है। संयोग की बात की एक दिन दोनों आपस मे टकरा गए। सिर से धान का बोझ गिर पड़ा। जुबान कुछ ना कह सकी बस, दोनों एक-दूजे से लिपट कर आंसू बहाते रहे। लगभग 50 साल बाद। खेत-खलिहान वही थे, मालिकान बदल गए थे। अजमत और सुखिया के वंशज का विस्तार हो चुका था। बुद्धि का काफी विकास हो चुका था। अपने बीच के जिस फर्क को अजमत और सुखिया नहीं जानते थे, उनके वंशजों ने उसका पता लगा लिया था। ज्ञान विस्तार के साथ-साथ हक-हकूक व जात-पात की बात भी समझ में आने लगी थी दोनों को।
छोटी-छोटी बातों के लिए खून बहाना आम हो गया था दोनों के लिए। एक दिन ऐसा भी आया की सुखिया और अजमत के वंशज एक-दूसरे की जमात के सामने हथियार लिए खड़े थे। हथियार चले, खून बहा। यह सब किसी दूसरे लोक से अजमत और सुखिया ने भी देखा। आज एक बार फिर दोनों एक-दूजे से लिपट कर आंसू बहा रहे थे। लेकिन इस बार कारण कुछ और था।मित्रता का फ़र्जमित्रता का फ़र्ज