जयशंकर प्रसाद जयंती पर विशेष
झारखंड। आधुनिक हिन्दी के श्रेष्ठ कवियों की परम्परा में जयशंकर प्रसाद का नाम अग्रगण्य है। ‘कामायनी’ उनकी रचनाधर्मिता का मेरुदंड है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो ‘रामचरितमानस’ के बाद सर्वाधिक पठनीय रचना हैै। उसमें निहित जीवन मूल्य ही उसका संदेश है। मनु का मानसरोवर की यात्रा ही उसका प्रतिपाद्य है। मानव मन की आनन्द साधना ही उसका रूपक है। ‘कामायनी’ की संवेदना व श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए डॉ0 आनन्द नारायण शर्मा लिखते हैं- ‘‘वह हिन्दी कविता का एक ऐसा कीर्तिस्तम्भ है, जो चिरकाल तक हममें श्रद्धा, विस्मय और स्पद्र्धा की भावनाएँ जगाता रहेगा।’’ कविवर जयशंकर प्रसाद ने मनु के जीवन चरित्र के माध्यम से मानवता के विकास का मनोवैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत किया है। पन्द्रह सर्ग में आबद्ध ‘कामायनी’ की कथा को मुख्यत: चार भागों में बाँटा गया है- पहला जल-प्लावन और मनु का प्रसंग, दूसरा मनु और श्रद्धा के मिलन से मानव का जन्म, तीसरा मनु और इड़ा का मिलन तथा सारस्वत प्रदेश का आख्यान एवं चौथा मनु द्वारा त्रिपुर का दर्शन सह कैलास यात्रा। त्रिपुर दर्शन का उल्लेख शैवदर्शन के ‘त्रिपुर रहस्य’ प्रकरण में मिलता है, किंतु वह केवल दार्शनिक प्रसंग मात्र है। परन्तु कामायनीकार ने दर्शन और मनोविज्ञान के धरातल पर भावलोक, कर्मलोक और ज्ञानलोक का वर्णन करते हुए ज्ञान, कर्म और इच्छा में सामंजस्य स्थापित करने की प्रेरणा दी है। स्वयं कवि के शब्दों में-
‘‘ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से न मिल सके
यह विडम्बना है जीवन की।’’
जयशंकर प्रसाद मूल रूप से कश्मीरी शैवदर्शन से प्रभावित थे। इसके अतिरिक्त शंकराचार्य का अद्वैतवाद, कपिल का सांख्य दर्शन, बौद्ध दर्शन तथा परमाणुवाद का भी यत्र-तत्र प्रभाव देखा जा सकता है। प्रसादजी की विशेषता रही है कि जहाँ कहीं किसी सत्य का अन्वेषण करना हो तो वे दर्शन का ही आधार लेते हैं। वहीं दूसरी ओर आन्तरिक वृत्तियों के विश्लेषण में मनोविज्ञान का सहारा लेते हैं। वस्तुत: यह भी दर्शन ही है। कामायनी के आरंभ में ही उन्होंने जल और हिम का जो दृश्यमान भेद उपस्थित किया है-वह आभास मात्र है। दोनों का कारण तत्त्व एक है। रस से जल का आविर्भाव होता है और हिम उस जल का ही रूपांतर है, जो पिघलकर फिर जल रूप हो जाता है। दोनों तत्त्व से एक हैं। जब तक मनुष्य में ज्ञान की कमी रहती है तब तक जड़ और चेतन में भिन्नता दिखाई पड़ती है। परन्तु ज्ञानदशा को प्राप्त करते ही वह भेद समाप्त हो जाता है और चिन्मय रूप में दिखाई देता है। यही ‘प्रत्यभिज्ञान दर्शन ’ है जो पूर्व में जड़ या चेतन (चित् या अचित्) के रूप में भिन्न भासित होती है। ज्ञान प्राप्त होते ही वह तिरोहित हो जाता है। ‘कामायनी’ का मूल ध्येय है- ज्ञान की प्राप्ति करना। मानुषिक कर्मों के सम्पादन में ज्ञान की बड़ी भूमिका होती है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-
‘‘यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरूतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।’’
जयशंकर प्रसाद भारतीय संस्कृति के गहन अध्येता थे। ‘कामायनी’ उनकी सांस्कृतिक चेतना का प्रतिरूप है। भारतीय संस्कृति में ‘बहुजन हिताय’, ‘बहुजन सुखाय’ की भावना रही है। आज के भौतिकवादी समाज में यह भावना क्षीण होती दिखाई पड़ती है। ऐसे समय में श्रद्धा के मुख से कही गयी ये पंक्तियाँ मानवता के लिए रक्षा कवच की भाँति प्रतीत होती है। यथा-
‘‘औरों को हँसते देखो मनु-
हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो
सबको सुखी बनाओ।’’
‘कामायनी’ के रचनाकार कर्म प्रधान समाज को महत्त्व देते हैं। कर्म ही जीवन है। कर्म की शून्यता ही जड़ता है। जीवन को गतिमान बनाये रखने के लिए कर्म जरूरी है। स्वयं कवि के शब्दों में-
‘‘एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
कर्म का भोग, भोग का कर्म,
यही जड़ का चेतना आनन्द।’’
मनवता के विकास में शक्ति का संचय और समन्वय बहुत जरूरी है। इन दोनों के अभाव से मानवता कभी विजयिनी नहीं हो सकती है। प्राचीन कालीन राजतंत्र की व्यवस्था में एक राजा दूसरे राजा से अपने को श्रेष्ठ घोषित करने के लिए संघर्षरत रहते थे। जिसका लाभ बाहरी शक्ति उठाती थी। प्रसाद जी इस मानसिकता को बदलना चाहते थे। इसलिए वे सीधे-सीधे न कहकर रूपक के माध्यम से अपनी बात कही है। ‘कामायनी’ में असंगठित भारतीयों को संगठित होकर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परतंत्रता की गुलामी से मुक्त होने की कामना की गई है। यथा-
‘‘शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय।’’
ईश्वरीय जीवन चक्र को आगे बढ़ाने के लिए दाम्पत्य जीवन का विशेष महत्त्व है। दाम्पत्य जीवन की नींव यदि समर्पण पर खड़ी होती है तो स्थायी होता है अन्यथा दिखावा मात्र। जयशंकर प्रसाद इस प्रकरण को ‘श्रद्धा’ सर्ग के अन्तर्गत रखते हुए कहते हैं-
‘‘समर्पण लो-सेवा का सार
सजल-संसृति का यह पतवार,
आज से यह जीवन उत्सर्ग
इसी पद-तल में गित विकार।’’
प्रसाद जी छायावादी कवि हैं परन्तु ‘कामायनी’ के माध्यम यह सिद्ध कर दिया कि उनका जीवन से कितना गहरा संबंध है। यद्यपि उनके जीवन-रथ की परिधि भले ही घर से दशाशवमेध तक सीमित रही है, परन्तु उनका मानसिक व आध्यात्मिक जीवन निरन्तर गतिशील था। उनकी गतिशीलता श्रद्धा के कथन से स्पष्ट दिखाई देती है-
‘‘डरो तुम, अरे अमृत संतान!
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,
पूर्ण आकर्षण जीवन केन्द्र
खिंची आवेगी सकल समृद्धि।’’
‘कामायनी’ अपने समय का सूर्य है, जिसकी रश्मियाँ तम को चिरती हुईं आगे बढ़ती ही जा रही हैं। प्रकाशन के इतने वर्षों बाद भी ‘कामायनी’ का पठन-पाठन व अन्वेषण जारी है। इसी से उसकी संवेदना सिद्ध होती है। ‘कामायनी-लोचन’ के रचनाकार डॉ0 उदयभानु सिंह लिखते हैं- ‘‘‘कामायनी’ जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना है। वह आधुनिक हिन्दी-साहित्य का ऐसा गौरव ग्रन्थ है जिस पर सबसे अधिक आलोचनात्मक पुस्तकें तथा लेख लिखे गये हैं, सबसे अधिक टीकाएँ लिखी गयी हैं, सबसे अधिक शोधपरक निबंध एवं प्रबंध प्रणीत हुए हैं और सर्वाधिक विवाद भी हुआ।’’
‘कामायनी’ की कथा में रूपक तत्त्व का समावेश हो गया है। इस बात को स्वीकारते हुए कवि स्वयं भूमिका में लिखते हैं- ‘‘यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है।’’ उनकी रूपक योजना की सबसे बड़ी बात यह है कि ‘कामायनी’ में एक साथ ऐतिहासिकता और प्रतीकात्मकता दोनों का अद्भुत मिश्रण हुआ है। यदि एक तरफ ऐतिहासिक दृष्टि से कवि ने सृष्टि की आदिकालीन विकास-यात्रा का कलात्मक अभिव्यक्ति दी है तो दूसरी ओर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ‘चिन्ता’ सर्ग से लेकर ‘आनन्द’ सर्ग तक अथवा जीवात्मा के अन्नमय कोश से होते हुए प्राणमय कोश, मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश को लांघकर आनन्दमय कोश की यात्रा कराता है। यही आन्तरिक कथा मनु और श्रद्धा के माध्यम से कही गयी है। इस कथा के माध्यम से कवि ने न केवल बुद्धि और हृदय के सामंजस्य का भाव प्रस्तुत किया है, बल्कि पुरुष और नारी की समान सत्ता को स्वीकारा है। वर्तमान समय की माँग भी यही है। कथा के रूपक का दूसरा तथ्य है- अतिशय भोगवाद की दुखमयता, अहम् का दुष्परिणाम, भौतिक समृद्धि में सुख शांति का अभाव, कोरी बौद्धिकता से जीवन की एकांगिता और दूसरों के लिए सम्वेदना एवं करुणा ही जीवन को समरस बना सकता है। इन तथ्यों से कामायनी में निहित रूपक तत्त्व स्वत: सिद्ध हो जाती है।
साहित्य में वर्णित कथा के माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग भी अपेक्षित माना गया है। इस दृष्टि से भी ‘कामायनी’ एक सफल रचना है। ‘कामायनी’ की कथा में मनु द्वारा पाक यज्ञ, मैत्रावरूण यज्ञ के अनुष्ठान में पुरानी याज्ञिक कर्मानुसार धर्मप्राप्ति का लक्ष्य को देखी जा सकती है। श्रद्धा और मनु के प्रणय बंधन में काम तत्त्व की प्राप्ति देखी जा सकती है। वहीं ‘इड़ा’ सर्ग से लेकर ‘संघर्ष’ सर्ग तक की कथा में अर्थ तत्त्व की प्राप्ति देखी जा सकती है। ‘निर्वेद’, ‘दर्शन ’, ‘रहस्य’ और ‘आनन्द’ सर्ग के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की संकल्पना को देखी जा सकती है। इस प्रकार ‘कामायनी’ की कथा में पुरुषार्थ चतुष्ट्य की ध्येय को पूरा करता है।
किसी काव्य की संवेदना भाव पक्ष के साथ कला पक्ष पर आश्रित होती है। इस दृष्टि से ‘कामायनी’ की भाषा-शैली पर विचार करें तो हम पाते हैं कि ‘कामायनी’ की भाषा में प्रांजलता और कोमलता विद्यमान है। यद्यपि अधिकता संस्कृत के तत्सम शब्दों की है, परन्तु माधुर्य लाने के लिए अधिकतर वे तद्भव शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे किरण का किरन, शय्या का सेज, दु:ख का दुख, रुष का रुठ, प्रसार का पसार आदि। ‘कामायनी’ में प्रयुक्त तत्सम शब्दावली के प्रयोग में जितनी सहजता है, वही कवि की विशिष्टता है। इस संदर्भ में ‘दर्शन ’ सर्ग की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
‘‘सत्ता का स्पंदन चला डोल,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,
तम जलनिधि का बन मधु मंथन,
ज्योत्सना सरिता का आलिंगन,
वह रजत गौर उज्ज्वल जीवन,
आलोक पुरुष! मंगल चेतना!’’
प्रकृति वर्णन में या श्रृंगारिक भावों की अभिव्यक्ति में कोमलकान्त पदावली का प्रयोग हुआ है। और माधुर्य गुण की प्रधानता है। परन्तु ओजस्वी भावों की अभिव्यक्ति में भाव के अनुरूप शब्दों का प्रयोग हुआ है-
‘‘वहीं धर्षिता खड़ी इड़ा सारस्वत रानी,
वे प्रतिशोध अधीर, रक्त बहता बन पानी।
धूमकेतु-सा चला रूद्र-नाराच भयंकर,
लिये पूँछ में ज्वाला अपनी अति प्रलयंकर।’’
कविता में अलंकार का होना आवश्यक माना गया है। अलंकार के बिना कविता शोभा नहीं पाती है। प्रसाद के ‘कामायनी’ में अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, समासोक्ति, मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रभावशाली ढंग से प्रयोग हुआ है। रूपक अलंकार का एक दृष्टांत देखिए- हिमालय के उत्तुंग शिखर पर बैठे मनु उसी प्रकार लग रहे हैं जिस प्रकार सागर के तट पर लहरों से फेंका हुआ कोई रत्न पड़ा हो। उसकी आभा चारों तरफ फैल रही है परन्तु उसे देखने वाला कोई नहीं है। अचानक कोई पर्यटक या रत्नों को खोजने वाला व्यक्ति उसे देख पाता है तो वह आनन्द से विभोर हो जाता है। यही स्थिति हिमालय के एकांत में भ्रमण कर रही श्रद्धा की है जो मनु को देखकर विस्मय और उल्लास से भर जाती हैं। यथा-
‘‘कौन तुम? संसृति जलनिधि
तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक,
कर रहे निर्जन का चुपचाप
प्रभा की धारा से अभिषेक?’’
उत्प्रेक्षा अलंकार का एक प्रभावोत्पादक वर्णन देखा जा सकता है। जलप्रवाह के भीतर से पृथ्वी थोड़ी बाहर आयी है। उसका कुछ भाग अभी भी पानी के भीतर है। कवि कल्पना करते हैं कि मानो कोई नवविवाहिता स्त्री हैं जो अपने विस्तर पर लज्जावश सिकुड़कर बैठी हुई। मानो बीती रात की घटना को याद करके अपने प्रिय से रूठकर अकड़ी हुई हैं। यथा-
‘‘सिंधु सेज पर धरावधू अब
तनिक संकुचित बैठी-सी,
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में
मान किये सी ऐंठी-सी।’’
रस को काव्य की आत्मा माना गया है। रस के बिना कविता निष्प्राण है। कामायनीकार ने ‘कामायनी’ में श्रृंगार, करुण, वीर, रौद्र, वीभत्स, भयानक, अद्भुत, शांत और वात्सल्य आदि रसों का सुन्दर प्रयोग किया है। करुण रस का स्थायी भाव है- शोक। जल-प्लावन से हुए विध्वंस और विनाश के कारण मनु के मन में शोक का भाव दिखाई देता है। उन्हें जल-प्लावन की स्मृति बार-बार सताती है। जिसके कारण मन में शोक बना रहता है। यथा-
‘‘पवन पी रहा था शब्दों को
निर्जनता की उखड़ी साँस,
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि बनी
हिम-शिलाओं के पास।
धू-धू करता नाच रहा था।
अनस्तित्व का तांडव नृत्य।’’
कविता में रस अलंकार की भाँति बिम्ब का होना भी जरूरी माना गया है। बिम्ब के माध्यम से कवि अपने पाठको व श्रोताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होते हैं। कहा भी जाता है कि बिना बिम्ब के कविता नहीं होती है। ‘कामायनी’ में श्रव्य, दृश्य, चाक्षुष, ध्राण आदि बिम्बों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। दृश्य बिम्ब का एक सुन्दर उदाहरण देखा जा सकता है। जब गंधार देश की श्रद्धा हिमालय पर भ्रमण के लिए आती हैं। तब उनके शरीर पर काले रंग की भेड़ की खाल वस्त्र के रूप में पहन रखीं है। सिर पर काले-काले घुँघराले बाल हैं। उनके बीच में लालिमा लिये गोरा मुख दिखाई दे रहा है। यथा-
‘‘मृसण, गंधार देश के नील
रोम वाले मेषों के चर्म,
ढँक रहे थे उनका वपुकांत
बन रहा था वह कोमल वर्म।
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एक लघु ज्वालामुखी अचेत
माधवी रजनी में अश्रांत।’’
छायावादी कविता में प्रतीकों का प्रयोग सदैव मिलता है। ‘कामायनी’ में जब श्रद्धा मनु से पूछती हैं कि तुम कौन हो? इसके उत्तर में घोर निराशा के साथ मनु उत्तर देते हुए ‘तिमिरगर्भ’ जैसे प्रतीक का प्रयोग करते हैं। जिस प्रकार रात्रिकाल में रोशनी चली जाने के बाद घर की वस्तुएँ खोजने पर भी नहीं मिलते। ठीक उसी प्रकार मनु की स्थिति है। यथा-
‘‘भूलता ही जाता दिन-रात
सजल अभिलाषा कलित अतीत,
बढ़ रहा तिमिरगर्भ में नित्य,
दीन जीवन का यह संगीत,
क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उद्भ्रांत?
विवर में नील गगन के आज!’’
‘कामायनी’ में जीवन की सम्रगता है। इसलिए यह छायावाद की प्रतिनिधि रचना है। कवि श्रद्धा के माध्यम से मनुष्य को कर्मपथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं। इसी में मानवता का कल्याण निहित है। कवि के शब्दों में-
‘‘कर्म-यज्ञ से जीवन के
स्वप्नों का स्वर्ग मिलेगा,
इसी विपिन में मानस की
आशा का कुसुम खिलेगा।’’
बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ एक सार्थक और सफल रचना है। सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन मूल्यों का खजाना है। उनकी प्रतिभा का गौरव ग्रन्थ है, जिससे मानव समाज हमेशा गौरवान्वित होता रहेगा।
प्रस्तुति:
डॉ. हाराधन कोईरी
सहायक प्राध्यापक
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
गोस्सनर महाविद्यालय,राँची