मुखाग्नि

February 8, 2024

रामू काका आज बहुत खुश थे। बड़ी चहल-पहल थी उनके घर में। सभी लोग तैयारियों में जुटे थे। घर का कोना-कोना मानो खुशियों से झूम रहा था। आखिर आज उनके जवजात लाड़ले की छठी मनाई जानेवाली थी। घर में उल्लास का होना लाजिमी था। बेटा के लिए रामू काका और काकी ने कहां-कहां मन्नतें नहीं मानी थीं। कौन से देवी-देवताओं के दरबार में माथा नहीं टेका था। रामू काका को पहली लड़की के पैदा होने के सात साल बाद बेटा हुआ था।

घर में बधाई देनेवालों का तांता लगा था। मुहल्ले की भाभियों के साथ रामू काका की खूब हंसी-ठिठोली हो रही थी। ऐसे शुभ मौके पर पौनियां भी नेग मांगने से नहीं चूक रही थीं। तभी मलिनियां भौजी सोहर गाते आंगन में प्रवेश करती हैं और रामू काका से कहती हैं-देखा रामू बाबू, हमरा लाल पाढ़ के सूती साड़ी चाही। और हां, ई तेल से काम न चली। हमरा गमकौआ तेल चाहीं। अइसन तेल चाही कि पूरा मोहल्ला गमक उठी। रामू काका मुसकुरा उठे और कहा-भौजी चिंता के कौनो बात नहीं है। सभे मिली। जैसे-जैसे दिन ढ़लने लगा वैसे-वैसे मुहल्ले की महिलाएं उनके घर पहुंचने लगीं।

कोई तेल लगाती तो कोई आलता से अपने पैरों को रंगती तो कोई बच्चे को देखकर काफी प्रसन्न हो उठती। रामू काका आंगन के कोने में बैठे सभी दृश्य देखते और कल्पनालोक की सैर कर लौट आते। शाम हो गई थी। अंधेरा घिर आया था। सबों के घर से जा चुकने के बाद रामू काका पत्नी के पास पहुंचते हैं और बेटे को गोद में लेकर चूमने लगते हैं। समय तेजी से निकलता जा रहा था और रामू काका के दोनों बच्चे बडे़ होते जा रहे थे। बेटा रामू काका के लिए मानो खिलौना बन गया था। वे उसी के साथ दिन की शुरुआत करते और उसी का चेहरा देखकर सोते। मानो उन्हें जीवन की सबसे बड़ी खुशी मिल गई हो। समय का सूरज बढ़ता जा रहा था।

…और देखते ही देखते बेटी न जाने कब सयान हो गई पता न चला। एक अच्छा सा घर-परिवार देखकर रामू काका ने अपनी बेटी राधिका के हाथ पीले कर दिए। वह बड़ी सुख्ी-संपन्न थी। किसी चीज की कमी नहीं थी उसे। सोने की छड़ी से कौआ हांक रही राधिका। अब रामू काका का लाड़ला श्रवण पढ़-लिखकर इंजीनियर बन गया था। कई अच्छे घरानों से रिश्ते आ रहे थे उसके लिए। रामू काका और काकी श्रवण की शादी को लेकर बड़े उत्सुक थे। उन्हीं रिश्तों में से दोनों ने एक लड़की को चुना और शादी कर दी श्रवण की। बहु ने आते ही घर-गृहस्थी संभाल लिया। रामू काका और काकी के दिन बड़े मजे से कट रहे थे। 70वां वसंत देख चुके रामू काका एक दिन पत्नी से चर्चा करने लगे कि हम लोगों ने पड़ोस के मंदिर मरम्मति की मन्नत श्रवण के जन्म से पहले ही मानी थी। कई साल बीत गए, पूरा नहीं किया मन्नत को। अब तो हमारा श्रवण भी कमाने लगा है, रामू काका ने कहा। कल हम श्रवण से बात करेंगे और सारी बात बता देंगे। देखना वो मना नहीं करेगा। आखिर उसी के लिए ही तो हमने मन्नत मानी थी। दूसरे दिन रात में सबों ने साथ खाना खाया।

… फिर रामू काका ने कहा-बेटा, जब तुम पैदा नहीं हुए थे तभी तुम्हारे लिए हम दोनों ने पड़ोस के मंदिर मरम्मति की मन्नत मानी थी। अब माता रानी की कृपा से तुम्हारी नौकरी भी लग गई है। अगर कुछ पैसे मिल जाते तो मन्नत पूरी हो जाती। अभी श्रवण कुछ कहता ही कि बहु बोल उठी-देखिए बाबूजी अभी हमारे पास फिजूल खर्च के लिए पैसे नहीं हैं। आनेवाले दिनों में हमारे बच्चे होंगे। अगर गैर जरूरी कामों में ही पैसे उड़ा दिए तो बच्चों के भविष्य का क्या होगा? इतना कहकर बेटा-बहु अपने कमरे में चले गए। यह बात रामू काका को तीर की तरह चुभी। दोनों हक्का-बक्का रह गए। अपनी चारपाई पर लेटे रामू काका के कानों में बहु की आवाज अब भी गुंज रही थी। बेटे के जन्म से लेकर पालन-पोषण तक का एक-एक दृश्य चलचित्र की तरह सामने आ रहा था। आंखों ही आखों में दोनों की रात कटी। इस बात से रामू काका को ऐसा सदमा लगा कि उन्होंने बिस्तर पकड़ ली। कुछ महीने बाद सुबह में जब रामू काका देर तक नहीं उठे तो काकी उन्हें उठाने गई। काकी ने देखा कि भगवान ने रामू काका को उठा लिया है।

काकी रामू काका के पार्थिव शरीर को पकड़कर दहाडे़ मारने लगी। उनकी आवाज सुकर बेटा-बहु और गांव वाले भी जमा हुए, तो देखा कि रामू काका परलोक सिधार गए हैं। काका के अंतिम संस्कार की तैयारी चलने लगी। जब उनके मृत शरीर को खटिया से नीचे उतारा जाने लगा तभी बालसीत के नीचे एक पेपर मिला। रामू काका ने न जाने इस वसीयतनमा को कब बना रख था। गांव के सरपंच साहब ने वसीयतनामा को पढ़ना शुरु किया। उसमें लिखा था-मैं जीते जी अपनी सारी संपत्ति का बंटवारा कर रहा हूं। घर-मकान मैं बेटा-बहु और पत्नी के नाम करता हूं। लिखा था-जमीन को तीन हिस्से में बांट दिया जाए। एक हिस्सा बेटा-बहु को मिले, दूसरा हिस्सा बेटी राधिका को और जीवन-यापन के लिए तीसरे हिस्से का अधिकार मैं पत्नी को देता हूं। … और वसीसत के अंत में जो लिखा था, उसे पढ़ते-पढ़ते सरपंच साहब की आवाज रुंध गई। मुंह खुले के खुले और आंखें फटी की फटी रह गई। अंत में लिखा था-‘मुखाग्नि का अधिकार मैं अपनी बेटी राधिका को देता हूं।’